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मैं मुसाफीर हूँ ।

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मेरा कहिंभी स्थायी वतन नही है,
मैं प्रकृतिके प्रभाव मे हुूँ ।

कर्म अनुसार,फल भोगरा्हा हूँ
मावा कें अंदर में हूँ ।

सृष्टिचक्र में फिरता हूँ ,
कभि उपर कभि नीचे होता हूँ ।

कर्मके वन्धन मे रहता हूँ ,
ईसलिए मै आखीर
तीनो लोक का मुसाफिर हूँ ।

 

आगे बढ्नाही जीवन है

आगे बढ्नाही जीवन है,
रुकजाना मरना है ।

एक–एक पल प्रल्यवान है,
जो कुछ करो,करना है ।

प्रत्यक पल अन्तिम घडी र्है,
ख्याल रखो स्वयम पर ।

भलाई के लीए कुछ करो,
बुद्धि लगाओ खुदा पर ।

जैसा कर्म करता,वेसेही फल,
वनता है अपना तकदीर ।

किसिका भी कूछ नही यहाँ,
सव है आखिर मुसाफिर ।

✍️ बाबुराम मुसाफिर @  २०५५ मंसिर

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